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अहे॑र्या॒तारं॒ कम॑पश्य इन्द्र हृ॒दि यत्ते॑ ज॒घ्नुषो॒ भीरग॑च्छत् । नव॑ च॒ यन्न॑व॒तिं च॒ स्रव॑न्तीः श्ये॒नो न भी॒तो अत॑रो॒ रजां॑सि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aher yātāraṁ kam apaśya indra hṛdi yat te jaghnuṣo bhīr agacchat | nava ca yan navatiṁ ca sravantīḥ śyeno na bhīto ataro rajāṁsi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अहेः॑ । या॒तार॑म् । कम् । अ॒प॒श्यः॒ । इ॒न्द्र॒ । हृ॒दि । यत् । ते॒ । ज॒घ्नुषः॑ । भीः । अग॑च्छत् । नव॑ । च॒ । यम् । न॒व॒तिम् । च॒ । स्रव॑न्तीः । श्ये॒नः । न । भी॒तः । अत॑रः । रजां॑सि॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:32» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:38» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उन दोनों में परस्पर क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! योधा जिस युद्ध व्यवहार में शत्रुओं का (जघ्नुषुः) हननेवाले (ते) आपका प्रभाव (अहेः) मेघ के गर्जन आदि शब्दों से प्राणियों को (यत्) जो (भीः) भय (अगच्छत्) प्राप्त होता है विद्वान् लोग उस मेघ के (यातारम्) देश देशान्तर में पहुंचानेवाले सूर्य को छोड़ और (कम्) किसको देखें सूर्य से ताड़ना को प्राप्त हुआ मेघ (भीतः) डरे हुए (श्येनः) (न) वाज के समान (च) भूमि में गिर के (नवनवतिम्) अनेक (स्रवन्तीः) जल बहानेवाली नदी वा नाड़ियों को पूरित करता है (यत्) जिस कारण सूर्य अपने प्रकाश आकर्षण और छेदन आदि गुणों से बड़ा है इसीसे (रजांसि) सब लोकों को (अतरः) तरता अर्थात् प्रकाशित करता है इसके समान आप हैं वे आप (हृदि) अपने मन में जिसको शत्रु (अपश्यः) देखो उसी को मारा करो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में उपमालङ्कार है। राजसेना के वीर पुरुषों को योग्य है कि जैसे किसी से पीड़ा को पाकर डरा हुआ श्येन पक्षी इधर-उधर गिरता पड़ता उड़ता है वा सूर्य से अनेक प्रकार की ताड़ना और खैंच कढ़ेर को प्राप्त होकर मेघ इधर-उधर देशदेशान्तर में अनेक नदी वा नाड़ियों को पूर्ण करता है इस मेघ की उत्पत्ति का सूर्य से भिन्न कोई निमित्त नहीं है। और जैसे अन्धकार में प्राणियों को भय होता है वैसे ही मेघ के बिजली और गर्जना आदि गुणों से भय होता है उस भय का दूर करनेवाला भी सूर्य ही है तथा सब लोकों के व्यवहारों को अपने प्रकाश और आकर्षण आदि गुणों में चलानेवाला है वैसे ही दुष्ट शत्रुओं को जीता करें। इस मंत्र में (नवनवतिम्) यह संख्या का उपलक्षण होने से पद असंख्यात अर्थ में है ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(अहेः) मेघस्य (यातारम्) देशान्तरे प्रापयितारम् (कम्) सूर्यादन्यम् (अपश्यः) पश्येत्। अत्र लिङर्थे लङ्। (इन्द्र) शत्रुदलविदारक योद्धः (हृदि) हृदये (यत्) धनम् (ते) तव (जघ्नुषः) हन्तुः सकाशात् (भीः) भयम् (अगच्छत्) गच्छति प्राप्नोति। अत्र सर्वत्र वर्त्तमाने लङ्। (नव) संख्यार्थे (च) पुनरर्थे (स्रवन्तीः) गमनं कुर्वन्तीर्नदीर्नाड़ीर्वा। स्रवन्त्य इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। स्रुधातोर्गत्यर्थत्वाद्रुधिरप्राणगमनमार्गा जीवनहेतवो नाड्योपि गृह्यन्ते। (श्येनः) पक्षी (न) इव (भीतः) भयं प्राप्तः (अतरः) तरति (रजांसि) सर्वाँल्लोकान् लोकारजांस्युच्यंते। निरु० ४।१९। ॥१४॥

अन्वय:

पुनस्तयोः परस्परं किं भवतीत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र योद्धर्यस्य शत्रून् जघ्नुषस्ते तव प्रभावोऽहेर्मेघस्य विद्युद्गर्जनादिविशेषात् प्राणिनो यद्याभीरगच्छत् प्राप्नोति विद्वान् मनुष्यस्तस्य मेघस्य यातारं देशांतरे प्रापयितारं सूर्य्यादन्यं कमप्यर्थं न पश्येयुः। स सूर्येण हतो मेघो भीतो नेव श्येनादिव कपोतः भूमौ पतित्वा नवनवतिर्नदीर्नाडीर्वा स्रवंतीः पूर्णाः करोति यद्यस्मात्सूर्यः स्वकीयैः प्रकाशाकर्षणछेदनादिगुणैर्महान्वर्त्तते तत्तस्माद्रजांस्यतरः सर्वांल्लोकान् संतरतीवास्ति स त्वं हृदि यं शत्रुमपश्यः पश्येस्तं हन्याः ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। राजभृत्या वीरा यथा केनचित् प्रहृतो भययुक्तः श्येनः पक्षी इतस्ततो गच्छति तथैव सूर्येण हत आकर्षितश्च यो मेघ इतस्ततः पतन् गच्छति स स्वशरीराख्येन जलेन लोकलोकान्तरस्य मध्येऽनेका नद्यो नाड्यश्च पिपर्त्ति। अत्र नवनवतिमितिपदमसंख्यातार्थेऽस्त्यु पलक्षणत्वान्नह्येतस्य मेघस्य सूर्याद्भिन्नं किमपि निमित्तमस्ति यथाऽन्धकारे प्राणिनां भयं जायते तथा मेघस्य सकाशाद्विद्युद्गर्जनादिभिश्च भयं जायते तन्निवारकोपि सूर्य एव तथा सर्वलोकानां प्रकाशाकर्षणादिभिर्व्यवहारेतुरस्ति तथैव शत्रून् विजयेरन् ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखाद्याकडून त्रस्त श्येन पक्षी इतस्ततः उडत असतो तसेच सूर्याद्वारे हनन, आकर्षण इत्यादी क्रियांमुळे मेघ ठिकठिकाणी नद्या, नाले पूर्ण भरत असतो. मेघाच्या उत्पत्तीचे सूर्यापेक्षा वेगळे निमित्त नाही. जसे अंधःकाराचे प्राण्यांना भय वाटते तसेच मेघाच्या विद्युत गर्जनेमुळे भय वाटते. ते भय दूर करणाराही सूर्यच आहे. तो सर्व गोलांच्या व्यवहारांना आपला प्रकाश व आकर्षण इत्यादी गुणांमुळे कार्यान्वित करणारा आहे, तसे राजसेनेच्या वीरपुरुषांनी दुष्ट शत्रूंना जिंकावे.
टिप्पणी: या मंत्रात (नवनवतिम्) या संख्येचे उपलक्षण असल्यामुळे पद असंख्यात अर्थातच आहे. ॥ १४ ॥